प्रश्न: भगवान श्री, एक तो अज्ञात का विल होता है, एक व्यक्ति का अपना विल होता
है। दोनों में कांफ्लिक्ट होते हैं। तो व्यक्ति कैसे जान पाए कि अज्ञात का क्या
विल है, अज्ञात की क्या इच्छा है?
पूछते हैं, व्यक्ति कैसे जान पाए कि अज्ञात की क्या इच्छा है? व्यक्ति कभी नहीं जान पाता। हां, व्यक्ति अपने को छोड़ दे, मिटा दे,
तो तत्काल जान लेता है; अज्ञात के साथ एक हो जाता है। बूंद नहीं जान सकती कि सागर क्या है, जब तक कि बूंद सागर के साथ खो न जाए। व्यक्ति नहीं जान सकता कि
परमात्मा की इच्छा क्या है। जब तक व्यक्ति अपने को व्यक्ति बनाए है, तब तक नहीं जान सकता है। व्यक्ति अपने को खो दे, तो फिर परमात्मा की इच्छा ही शेष रह जाती है, क्योंकि व्यक्ति की कोई इच्छा शेष नहीं रह जाती। तब जानने का सवाल
ही नहीं उठता। तब व्यक्ति वैसे ही जीता है, जैसे अज्ञात उसे जिलाता है।
तब व्यक्ति की कोई आकांक्षा,
तब व्यक्ति की कोई फलाकांक्षा, तब व्यक्ति की कोई अपनी अभीप्सा, तब व्यक्ति की समग्र की
आकांक्षा के ऊपर अपनी थोपने की कोई वृत्ति शेष नहीं रह जाती, क्योंकि व्यक्ति शेष नहीं रह जाता।
जब तक व्यक्ति है, तब तक अज्ञात क्या चाहता है, नहीं जाना जा सकता। और जब
व्यक्ति नहीं है, तब जानने की कोई जरूरत नहीं; जो भी होता है,
वह अज्ञात ही करवाता है। तब व्यक्ति एक
इंस्ट्रूमेंट हो जाता है,
तब व्यक्ति एक साधनमात्र हो जाता है।
कृष्ण पूरी गीता में आगे
अर्जुन को यही समझाते हैं कि वह अपने को छोड़ दे अज्ञात के हाथों में; समर्पित कर दे। क्योंकि वह जिन्हें सोच रहा है कि ये मर जाएंगे, वे अज्ञात के द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं। कि वह जिन्हें
सोचता है कि इनकी मृत्यु के लिए मैं जिम्मेवार हो जाऊंगा, उनके लिए वह बिलकुल भी जिम्मेवार नहीं होगा। अगर वह अपने को बचाता
है, तो जिम्मेवार हो जाएगा। अगर अपने को छोड़कर
साधनवत, साक्षीवत लड़ सकता है, तो उसकी कोई जिम्मेवारी नहीं रह जाती है।
व्यक्ति अपने को खो दे समष्टि
में, व्यक्ति अपने को समर्पित कर दे, छोड़ दे अहंकार को,
तो ब्रह्म की इच्छा ही फलित होती है। अभी भी
वही फलित हो रही है। ऐसा नहीं कि हम उससे भिन्न फलित करा लेंगे। लेकिन हम भिन्न
फलित कराने में लड़ेंगे, टूटेंगे, नष्ट होंगे।
एक छोटी-सी कहानी मैं निरंतर
कहता रहा हूं। मैं कहता रहा हूं कि एक नदी में बहुत बाढ़ आई है और दो छोटे-से तिनके
उस नदी में बह रहे हैं। एक तिनका नदी में आड़ा पड़ गया है और नदी की बाढ़ को रोकने की
कोशिश कर रहा है। और वह चिल्ला रहा है बहुत जोर से कि नहीं बढ़ने देंगे नदी को, यद्यपि नदी बढ़ी जा रही है। वह चिल्ला रहा है कि रोककर रहेंगे, यद्यपि रोक नहीं पा रहा है। वह चिल्ला रहा है कि नदी को हर हालत
में रोककर ही रहूंगा, जीऊं या मरूं! लेकिन बहा जा रहा है। नदी को
न उसकी आवाज सुनाई पड़ती है,
न उसके संघर्ष का पता चलता है। एक छोटा-सा
तिनका! नदी को उसका कोई भी पता नहीं है। नदी को कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन तिनके
को बहुत फर्क पड़ रहा है। उसकी जिंदगी बड़ी मुसीबत में पड़ गई है, बहा जा रहा है। नहीं लड़ेगा तो जहां पहुंचेगा, वहीं पहुंचेगा लड़कर भी। लेकिन यह बीच का क्षण, यह बीच का काल,
दुख, पीड़ा, द्वंद्व और चिंता का काल हो जाएगा।
उसके पड़ोस में एक दूसरे तिनके
ने छोड़ दिया है अपने को। वह नदी में आड़ा नहीं पड़ा है, सीधा पड़ा है,
नदी जिस तरफ बह रही है उसी तरफ, और सोच रहा है कि मैं नदी को बहने में सहायता दे रहा हूं। उसका भी
नदी को कोई पता नहीं है। वह सोच रहा है, मैं नदी को सागर तक पहुंचा ही
दूंगा; मेरे साथ है तो पहुंच ही जाएगी। नदी को उसकी
सहायता का भी कोई पता नहीं है।
लेकिन नदी को कोई फर्क नहीं
पड़ता, उन दोनों तिनकों को बहुत फर्क पड़ रहा है। जो
नदी को साथ बहा रहा है, वह बड़े आनंद में है, वह बड़ी मौज में नाच रहा है; और जो नदी से लड़ रहा है, वह बड़ी पीड़ा में है। उसका नाच, नाच नहीं है, एक दुखस्वप्न है। उसका नाच उसके अंगों की टूटन है; वह तकलीफ में पड़ा है, हार रहा है। और जो नदी को बहा
रहा है, वह जीत रहा है।
व्यक्ति ब्रह्म की इच्छा के
अतिरिक्त कुछ कभी कर नहीं पाता है,
लेकिन लड़ सकता है, इतनी स्वतंत्रता है। और लड़कर अपने को चिंतित कर सकता है, इतनी स्वतंत्रता है।
सार्त्र का एक वचन है, जो बड़ा कीमती है। वचन है, ह्युमैनिटी इज़ कंडेम्ड टु बी
फ्री--आदमी स्वतंत्र होने के लिए मजबूर है; विवश है, कंडेम्ड है,
निंदित है--स्वतंत्र होने के लिए।
लेकिन आदमी अपनी स्वतंत्रता
के दो उपयोग कर सकता है। अपनी स्वतंत्रता को वह ब्रह्म की इच्छा से संघर्ष बना
सकता है। और तब उसका जीवन दुख,
पीड़ा, एंग्विश, संताप का जीवन होगा। और अंततः पराजय फल होगी। और कोई व्यक्ति अपनी
स्वतंत्रता को ब्रह्म के प्रति समर्पण बना सकता है, तब जीवन आनंद का, ब्लिस का,
नृत्य का, गीत का जीवन होगा। और अंत? अंत में विजय के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। वह जो तिनका सोच
रहा है कि नदी को साथ दे रहा हूं,
वह विजयी ही होने वाला है। उसकी हार का कोई
उपाय नहीं है। और जो नदी को रोक रहा है, वह हारने ही वाला है, उसकी जीत का कोई उपाय नहीं है।
ब्रह्म की इच्छा को नहीं जाना
जा सकता है, लेकिन ब्रह्म के साथ एक हुआ जा सकता है। और
तब, अपनी इच्छा खो जाती है, उसकी इच्छा ही शेष रह जाती है।
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