सोमवार, 25 मार्च 2013

विचारवान अर्जुन और युद्ध का धर्मसंकट (भाग-4 प्रथम प्रवचन)


प्रश्न: भगवान श्रीश्रीमद्भगवद्गीता में सारा भार अर्जुन पर है और यहां गीता में दुर्योधन कहता हैपांडवों की सेना भीम-अभिरक्षित और कौरवों की भीष्म...। तो भीष्म के सामने भीम को रखने का खयाल क्या यह नहीं हो सकता कि दुर्योधन अपने प्रतिस्पर्धी के रूप में भीम को ही देखता है?


यह बिंदु विचारणीय है। सारा युद्ध अर्जुन की धुरी पर हैलेकिन यह पीछे से सोची गई बात है--युद्ध के बादयुद्ध की निष्पत्ति पर। जो युद्ध के पूरे फल को जानते हैंवे कहेंगे कि सारा युद्ध अर्जुन की धुरी पर घूमा है। लेकिन जो युद्ध के प्रारंभ में खड़े थेवे ऐसा नहीं सोच सकते थे। दुर्योधन के लिए युद्ध की सारी संभावना भीम से ही पैदा होती थी। उसके कारण थे। अर्जुन जैसे भले व्यक्ति पर युद्ध का भरोसा दुर्योधन भी नहीं कर सकता था। अर्जुन डांवाडोल हो सकता हैइसकी संभावना दुर्योधन के मन में भी है। अर्जुन युद्ध से भाग सकता हैइसकी कोई गहरी अचेतन प्रतीति दुर्योधन के मन में भी है। अगर युद्ध टिकेगातो भीम पर टिकेगा। युद्ध के लिए भीम जैसे कम बुद्धि केलेकिन ज्यादा शक्तिशाली लोगों पर भरोसा किया जा सकता है।
अर्जुन बुद्धिमान है। और जहां बुद्धि हैवहां संशय है। और जहां संशय हैवहां द्वंद्व है। अर्जुन विचारशील है। और जहां विचारशीलता हैवहां पूरे पर्सपेक्टिवपूरे परिप्रेक्ष्य को सोचने की क्षमता हैवहां युद्ध जैसी भयंकर स्थिति में आंख बंद करके उतरना कठिन है। दुर्योधन भरोसा कर सकता है--युद्ध के लिए--भीम का।
भीम और दुर्योधन के बीच गहरा सामंजस्य है। भीम और दुर्योधन एक ही प्रकृति केबहुत गहरे में एक ही सोच केएक ही ढंग के व्यक्ति हैं। इसलिए अगर दुर्योधन ने ऐसा देखा कि भीम केंद्र है दूसरी तरफतो गलत नहीं देखाठीक ही देखा। और गीता भी पीछे सिद्ध करती है कि अर्जुन भागा-भागा हो गया है। अर्जुन पलायनवादी दिखाई पड़ा हैवह एस्केपिस्ट मालूम पड़ा है। अर्जुन जैसे व्यक्ति की संभावना यही है। अर्जुन के लिए यह युद्ध भारी पड़ा है। युद्ध में जानाअर्जुन के लिए अपने को रूपांतरित करके ही संभव हो सका है। अर्जुन एक नए तल पर पहुंचकर ही युद्ध के लिए राजी हो सका है।
भीम जैसा थाउसी तल पर युद्ध के लिए तैयार था। भीम के लिए युद्ध सहजता हैजैसे दुर्योधन के लिए सहजता है। इसलिए दुर्योधन भीम को केंद्र में देखता हैतो आकस्मिक नहीं है। लेकिन यह युद्ध के प्रारंभ की बात है। युद्ध की निष्पत्ति क्या होगीअंत क्या होगायह दुर्योधन को पता नहीं है। हमें पता है।
और ध्यान रहेअक्सर ही जीवन जैसा प्रारंभ होता हैवैसा अंत नहीं होता। अक्सर अंत सदा ही अनिर्णीत हैअंत सदा ही अदृश्य है। अक्सर ही जो हम सोचकर चलते हैंवह नहीं होता। अक्सर ही जो हम मानकर चलते हैंवह नहीं होता। जीवन एक अज्ञात यात्रा है। इसलिए जीवन के प्रारंभिक क्षणों में--किसी भी घटना के प्रारंभिक क्षणों में--जो सोचा जाता हैवह अंतिम निष्पत्ति नहीं बनती। और हम भाग्य के निर्माण की चेष्टा में रत हो सकते हैंलेकिन भाग्य के निर्णायक नहीं हो पाते हैंनिष्पत्ति कुछ और होती है।
खयाल तो दुर्योधन का यही था कि भीम केंद्र पर रहेगा। और अगर भीम केंद्र पर रहतातो शायद दुर्योधन जो कहता है कि हम विजयी हो सकेंगेहो सकता था। लेकिन दुर्योधन की दृष्टि सही सिद्ध नहीं हुई। और आकस्मिक तत्व बीच में उतर आया। वह भी सोच लेने जैसा है।
कृष्ण का खयाल ही न था। कि अर्जुन अगर भागने लगेतो कृष्ण उसे युद्ध में रत करवा सकते हैं। हम सबको भी खयाल नहीं होता। जब हम जिंदगी में चलते हैंतो एक अज्ञात परमात्मा की तरफ से भी बीच में कुछ होगाइसका हमें कभी खयाल नहीं होता। हम जो भी हिसाब लगाते हैंवह दृश्य का होता है। अदृश्य भी बीच में इंटरपेनिट्रेट कर जाएगाअदृश्य भी बीच में उतर आएगाइसका हमें भी कोई खयाल नहीं होता।
कृष्ण के रूप में अदृश्य बीच में उतर आया है और सारी कथा बदल गई है। जो होतावह नहीं हुआऔर जो नहीं होने की संभावना मालूम होती थीवह हुआ है। और अज्ञात जब उतरता है तो उसके प्रिडिक्शन नहीं हो सकतेउसकी कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती। इसलिए जब कृष्ण भागते हुए अर्जुन को युद्ध में धक्का देने लगेतो जो भी इस कथा को पहली बार पढ़ता हैवह शॉक खाए बिना नहीं रह सकताउसको धक्का लगता है।
जब इमर्सन ने पहली बार पढ़ातो उसने किताब बंद कर दीवह घबड़ा गया। क्योंकि अर्जुन जो कह रहा थावह सभी तथाकथित धार्मिक लोगों को ठीक मालूम पड़ेगा। वह ठीक तथाकथित धार्मिक आदमी का तर्क दे रहा था। जब हेनरी थारो ने इस जगह आकर देखा कि कृष्ण उसे युद्ध में जाने की सलाह देते हैंतो वह भी घबड़ा गया। हेनरी थारो ने भी लिखा है कि मुझे ऐसा भरोसा नहीं थाखयाल भी नहीं था कि कहानी ऐसा मोड़ लेगी कि कृष्ण और युद्ध में जाने की सलाह देंगे! गांधी को भी वहीं तकलीफ थीउनकी पीड़ा भी वहीं थी।
लेकिन जिंदगी किन्हीं सिद्धांतों के हिसाब से नहीं चलती। जिंदगी बहुत अनूठी है। जिंदगी रेल की पटरियों पर दौड़ती नहींगंगा की धारा की तरह बहती हैउसके रास्ते पहले से तय नहीं हैं। और जब परमात्मा बीच में आता हैतो सब डिस्टर्ब कर देता हैजो भी तैयार थाजो भी आदमी ने निर्मित किया थाजो आदमी की बुद्धि सोचती थीसब उलट-फेर हो जाता है।
इसलिए बीच में परमात्मा भी उतर आएगा इस युद्ध मेंइसकी दुर्योधन को कभी कल्पना न थी। इसलिए वह जो कह रहा हैप्रारंभिक वक्तव्य है। जैसा कि हम सब आदमी जिंदगी के प्रारंभ में जो वक्तव्य देते हैंऐसे ही होते हैं। बीच में अज्ञात उतरता चलता है और सब कहानी बदलती चलती है। अगर हम जिंदगी को पीछे से लौटकर देखेंतो हम कहेंगेजो भी हमने सोचा थावह सब गलत हुआ: जहां सफलता सोची थीवहां असफलता मिलीजो पाना चाहता थावह नहीं पाया जा सकाजिसके मिलने से सुख सोचा थावह मिल गया और दुख पायाऔर जिसके मिलने की कभी कामना भी न की थीउसकी झलक मिली और आनंद के झरने फूटे। सब उलटा हो जाता है।
लेकिन इतने बुद्धिमान आदमी इस जगत में कम हैंजो निष्पत्ति को पहले ध्यान में लें। हम सब प्रारंभ को ही पहले ध्यान में लेते हैं। काश! हम अंत को पहले ध्यान में लें तो जिंदगी की कथा बिलकुल और हो सकती है। लेकिन अगर दुर्योधन अंत को पहले ध्यान में ले लेतो युद्ध नहीं हो सकता। दुर्योधन अंत को ध्यान में नहीं ले सकताअंत को मानकर चलेगा कि ऐसा होगा। इसलिए वह कह रहा है बार-बार कि यद्यपि सेनाएं उस तरफ महान हैंलेकिन जीत हमारी ही होगी। मेरे योद्धा जीवन देकर भी मुझे जिताने के लिए आतुर हैं।
लेकिन हम अपनी सारी शक्ति भी लगा देंतो भी असत्य जीत नहीं सकता। हम सारा जीवन भी लगा देंतो भी असत्य जीत नहीं सकताइस निष्पत्ति का दुर्योधन को कोई भी बोध नहीं हो सकता है। और सत्यजो कि हारता हुआ भी मालूम पड़ता होअंत में जीत जाता है। असत्य प्रारंभ में जीतता हुआ मालूम पड़ता हैअंत में हार जाता है। सत्य प्रारंभ में हारता हुआ मालूम पड़ता हैअंत में जीत जाता है। लेकिन प्रारंभ से अंत को देख पाना कहां संभव है! जो देख पाता हैवह धार्मिक हो जाता है। जो नहीं देख पाता हैवह दुर्योधन की तरह अंधे युद्ध में उतरता चला जाता है।

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