सोमवार, 25 मार्च 2013

विचारवान अर्जुन और युद्ध का धर्मसंकट (भाग-7 प्रथम प्रवचन)


प्रश्न: भगवान श्री, आपका यह स्टेटमेंट बड़ी दिक्कत में डाल देता है कि अचेतन मन भगवान से जुड़ा हुआ होता है। यह तो जुंग ने पीछे से बताया, मिथोलाजी का कलेक्टिव अनकांशस से संबंध जोड़कर। मगर फ्रायड कहता है कि वह शैतान से भी जुड़ा होता है, तो तकलीफ बढ़ जाती है।
ओशो :  फ्रायड का ऐसा जरूर खयाल है कि वह जो अचेतन मन है हमारा, वह भगवान से ही नहीं, शैतान से भी जुड़ा होता है। असल में भगवान और शैतान हमारे शब्द हैं। जब किसी चीज को हम पसंद नहीं करते, तो हम कहते हैं, शैतान से जुड़ा है; और किसी चीज को जब हम पसंद करते हैं, तो हम कहते हैं, भगवान से जुड़ा है। लेकिन मैं इतना ही कह रहा हूं कि अज्ञात से जुड़ा है। और अज्ञात मेरे लिए भगवान है। और भगवान में मेरे लिए शैतान समाविष्ट है, उससे अलग नहीं है।
असल में जो हमें पसंद नहीं है, मन होता है कि वह शैतान ने किया होगा। जो गलत, असंगत नहीं है, वह भगवान ने किया होगा। ऐसा हमने सोच रखा है कि हम केंद्र पर हैं जीवन के, और जो हमारे पसंद पड़ता है, वह भगवान का किया हुआ है, भगवान हमारी सेवा कर रहा है। जो पसंद नहीं पड़ता, वह शैतान का किया हुआ है; शैतान हमसे दुश्मनी कर रहा है। यह मनुष्य का अहंकार है, जिसने शैतान और भगवान को भी अपनी सेवा में लगा रखा है।
भगवान के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। जिसे हम शैतान कहते हैं, वह सिर्फ हमारी अस्वीकृति है। जिसे हम बुरा कहते हैं, वह सिर्फ हमारी अस्वीकृति है। और अगर हम बुरे में भी गहरे देख पाएं, तो फौरन हम पाएंगे कि बुरे में भला छिपा होता है। दुख में भी गहरे देख पाएं, तो पाएंगे कि सुख छिपा होता है। अभिशाप में भी गहरे देख पाएं, तो पाएंगे कि वरदान छिपा होता है। असल में बुरा और भला एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। शैतान के खिलाफ जो भगवान है, उसे मैं अज्ञात नहीं कह रहा; मैं अज्ञात उसे कह रहा हूं, जो हम सबके जीवन की भूमि है, जो अस्तित्व का आधार है। उस अस्तित्व के आधार से ही रावण भी निकलता है, उस अस्तित्व के आधार से ही राम भी निकलते हैं। उस अस्तित्व से अंधकार भी निकलता है, उस अस्तित्व से प्रकाश भी निकलता है।
हमें अंधकार में डर लगता है, तो मन होता है, अंधकार शैतान पैदा करता होगा। हमें रोशनी अच्छी लगती है, तो मन होता है कि भगवान पैदा करता होगा। लेकिन अंधकार में कुछ भी बुरा नहीं है, रोशनी में कुछ भी भला नहीं है। और जो अस्तित्व को प्रेम करता है, वह अंधकार में भी परमात्मा को पाएगा और प्रकाश में भी परमात्मा को पाएगा।
सच तो यह है कि अंधकार को भय के कारण हम कभी--उसके सौंदर्य को--जान ही नहीं पाते; उसके रस को, उसके रहस्य को हम कभी जान ही नहीं पाते। हमारा भय मनुष्य निर्मित भय है। कंदराओं से आ रहे हैं हम, जंगली कंदराओं से होकर गुजरे हैं हम। अंधेरा बड़ा खतरनाक था। जंगली जानवर हमला कर देता; रात डराती थी। इसलिए अग्नि जब पहली दफा प्रकट हो सकी, तो हमने उसे देवता बनाया। क्योंकि रात निश्चिंत हो गई; आग जलाकर हम निर्भय हुए। अंधेरा हमारे अनुभव में भय से जुड़ गया है। रोशनी हमारे हृदय में अभय से जुड़ गई है।
लेकिन अंधेरे का अपना रहस्य है, रोशनी का अपना रहस्य है। और इस जीवन में जो भी महत्वपूर्ण घटित होता है, वह अंधेरे और रोशनी दोनों के सहयोग से घटित होता है। एक बीज हम गड़ाते हैं अंधेरे में, फूल आता है रोशनी में। बीज हम गड़ाते हैं अंधेरे में, जमीन में; जड़ें फैलती हैं अंधेरे में, जमीन में। फूल खिलते हैं आकाश में, रोशनी में। एक बीज को रोशनी में रख दें, फिर फूल कभी न आएंगे। एक फूल को अंधेरे में गड़ा दें, फिर बीज कभी पैदा न होंगे। एक बच्चा पैदा होता है मां के पेट के गहन अंधकार में, जहां रोशनी की एक किरण नहीं पहुंचती। फिर जब बड़ा होता है, तो आता है प्रकाश में। अंधेरा और प्रकाश एक ही जीवन-शक्ति के लिए आधार हैं। जीवन में विभाजन, विरोध, पोलेरिटी मनुष्य की है।
फ्रायड जो कहता है कि शैतान से जुड़ा है...। फ्रायड यहूदी-चिंतन से जुड़ा था। फ्रायड यहूदी घर में पैदा हुआ था। बचपन से ही शैतान और परमात्मा के विरोध को उसने सुन रखा था। यहूदियों ने दो हिस्से तोड़ रखे हैं--एक शैतान है, एक भगवान है। वह आदमी के ही मन के दो हिस्से हैं। तो फ्रायड को लगा कि जहां-जहां से बुरी चीजें उठती हैं अचेतन से, वे बुरी-बुरी चीजें शैतान डाल रहा होगा।
नहीं, कोई शैतान नहीं है। और अगर शैतान हमें दिखाई पड़ता है, तो कहीं न कहीं हमारी बुनियादी भूल है। धार्मिक व्यक्ति शैतान को देखने में असमर्थ है। परमात्मा ही है। और अचेतन--जहां से वैज्ञानिक सत्य को पाता है या धार्मिक सत्य को पाता है--वह परमात्मा का द्वार है। धीरे-धीरे हम उसकी गहराई में उतरेंगे, तो खयाल में निश्चित आ सकता है।


तस्य संजनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शंखं दध्मौ प्रतापवान्।। १२।।
ततः शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्।। १३।।
इस प्रकार द्रोणाचार्य से कहते हुए दुर्योधन के वचनों को सुनकर, कौरवों में वृद्ध, बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उसके हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंहनाद के समान गर्जकर शंख बजाया। उसके उपरांत शंख और नगाड़े तथा ढोल, मृदंग और नृसिंहादि बाजे एक साथ ही बजे। उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ।
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः।। १४।।
पाग्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनंजयः।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंखं भीमकर्मा वृकोदरः।। १५।।
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ।। १६।।
इसके अनंतर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाए। उनमें श्रीकृष्ण ने पांचजन्य नामक शंख और अर्जुन ने देवदत्त नामक शंख बजाया। भयानक कर्म वाले भीमसेन ने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया। कुंतीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनंतविजय नामक और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नाम वाले शंख बजाए।

विचारवान अर्जुन और युद्ध का धर्मसंकट (भाग-6 प्रथम प्रवचन)


प्रश्न: भगवान श्री, वैज्ञानिक-सिद्धि में व्यक्ति का अपना कुछ होता है। और अज्ञात इस वैज्ञानिक- सिद्धि में कैसे उतरता होगा, यह तकलीफ की बात बन जाती है!


ऐसा साधारणतः लगता है कि वैज्ञानिक खोज में व्यक्ति की अपनी इच्छा काम करती है; ऐसा बहुत ऊपर से देखने पर लगता है; बहुत भीतर से देखने पर ऐसा नहीं लगेगा। अगर जगत के बड़े से बड़े वैज्ञानिकों को हम देखें तो हम बहुत हैरान हो जाएंगे। जगत के सभी बड़े वैज्ञानिकों के अनुभव बहुत और हैं। कालेज, युनिवर्सिटीज में विज्ञान की जो धारणा पैदा होती है, वैसा अनुभव उनका नहीं है।
मैडम क्यूरी ने लिखा है कि मुझे एक सवाल दिनों से पीड़ित किए हुए है। उसे हल करती हूं और हल नहीं होता है। थक गई हूं, परेशान हो गई हूं, आखिर हल करने की बात छोड़ दी है। और एक रात दो बजे वैसे ही कागजात टेबल पर अधूरे छोड़कर सो गई हूं और सोच लिया कि अब इस सवाल को छोड़ ही देना है।
थक गया व्यक्ति। लेकिन सुबह उठकर देखा है कि आधा सवाल जहां छोड़ा था, वह सुबह पूरा हो गया है। कमरे में तो कोई आया नहीं, द्वार बंद थे। और कमरे में भी कोई आकर उसको हल कर सकता था, जिसको मैडम क्यूरी हल नहीं कर सकती थी, इसकी भी संभावना नहीं है। नोबल-प्राइज-विनर थी वह महिला। घर में नौकर-चाकर ही थे, उनसे तो कोई आशा नहीं है। वह तो और बड़ा मिरेकल होगा कि घर में नौकर-चाकर आकर हल कर दें। लेकिन हल तो हो गया है। और आधा ही छोड़ा था और आधा पूरा है। तब बड़ी मुश्किल में पड़ गई। सब द्वार-दरवाजे देखे। कोई परमात्मा उतर आए, इसकी भी आस्था उसे नहीं हो सकती। कोई परमात्मा ऐसे ऊपर से उतर भी नहीं आया था।
लेकिन गौर से देखा तो पाया कि बाकी अक्षर भी उसके ही हैं। तब उसे खयाल आना शुरू हुआ कि रात वह नींद में सपने में उठी। सपने का उसे याद आ गया कि वह सपने में उठी है। उसने सपना देखा कि वह सवाल हल कर रही है। वह नींद में उठी है रात में और उसने सवाल हल किया है। फिर तो यह उसकी व्यवस्थित विधि हो गई कि जब कोई सवाल हल न हो, तब वह उसे तकिए के नीचे दबाकर सो जाए; रात उठकर हल कर ले।
दिनभर तो मैडम क्यूरी इंडिविजुअल थी, व्यक्ति थी। रात नींद में अहं खो जाता है, बूंद सागर से मिल जाती है। और जो सवाल हमारा चेतन मन नहीं खोज पाया, वह हमारा अचेतन, गहरे में जो परमात्मा से जुड़ा है, खोज पाता है।
आर्किमिडीज एक सवाल हल कर रहा था, वह हल नहीं होता था। वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया था। सम्राट ने कहा था, हल करके ही लाओ। आर्किमिडीज की सारी प्रतिष्ठा हल करने पर ही निर्भर थी, लेकिन थक गया। रोज सम्राट का संदेश आता है कि कब तक हल करोगे?
सम्राट को किसी ने एक सोने का बहुत कीमती आभूषण भेंट किया था। लेकिन सम्राट को शक था कि धोखा दिया गया है, और सोने में कुछ मिला है। लेकिन बिना आभूषण को मिटाए पता लगाना है कि उसमें कोई और धातु तो नहीं मिली है! अब उस वक्त तक कोई उपाय नहीं था जानने का। और बड़ा था आभूषण। उसमें कहीं बीच में अगर अंदर कोई चीज डाल दी गई हो, तो वजन तो बढ़ ही जाएगा।
आर्किमिडीज थक गया, परेशान हो गया। फिर एक दिन सुबह अपने टब में लेटा हुआ है, पड़ा हुआ है! बस, अचानक, नंगा ही था, सवाल हल हो गया। भागा! भूल गया--आर्किमिडीज अगर होता, तो कभी न भूलता कि मैं नंगा हूं--सड़क पर आ गया! और चिल्लाने लगा, इरेका, इरेका, मिल गया। और भागा राजमहल की तरफ। लोगों ने पकड़ा कि क्या कर रहे हो? राजा के सामने नंगे पहुंच जाओगे? उसने कहा, लेकिन यह तो मुझे खयाल ही न रहा! घर वापिस आया।
यह जो आदमी सड़क पर पहुंच गया था नग्न, यह आर्किमिडीज नहीं था। आर्किमिडीज सड़क पर नहीं पहुंच सकता था। यह व्यक्ति नहीं था। और यह जो हल हुआ था सवाल, यह व्यक्ति की चेतना में हल नहीं हुआ था। यह निर्व्यक्ति-चेतना में हल हुआ था। वह बाथरूम में पड़ा था अपने टब में--रिलैक्स्ड, शिथिल। ध्यान घट गया, भीतर उतर गया--सवाल हल हो गया। जो सवाल स्वयं से हल न हुआ था, वह टब ने हल कर दिया? टब हल करेगा सवाल को? जो स्वयं से हल नहीं हुआ था, वह पानी में लेटने से हल हो जाएगा? पानी में लेटने से कोई बुद्धि बढ़ जाती है? जो कपड़े पहने हल नहीं हुआ था, वह नंगे होने से हल हो जाएगा?
नहीं, कुछ और घटना घट गई है। यह व्यक्ति नहीं रहा कुछ देर के लिए, अव्यक्ति हो गया। यह कुछ देर के लिए ब्रह्म के स्रोत में खो गया।
अगर हम जगत के सारे बड़े वैज्ञानिकों के--आइंस्टीन के, मैक्स प्लांक के या एडिंग्टन के या एडीसन के--इनके अगर हम अनुभव पढ़ें, तो इन सब का अनुभव यह है कि जो भी हमने जाना, वह हमने नहीं जाना। निरंतर ही ऐसा हुआ है कि जब हमने जाना, तब हम न थे और जानना घटित हुआ है। यही उपनिषद के ऋषि कहते हैं, यही वेद के ऋषि कहते हैं, यही मोहम्मद कहते हैं, यही जीसस कहते हैं।
अगर हम कहते हैं कि वेद अपौरुषेय हैं, तो उसका और कोई मतलब नहीं। उसका यह मतलब नहीं कि ईश्वर उतरा और उसने किताब लिखी। ऐसी पागलपन की बातें करने की कोई जरूरत नहीं है। अपौरुषेय का इतना ही मतलब है कि जिस पुरुष पर यह घटना घटी, उस वक्त वह मौजूद नहीं था; उस वक्त मैं मौजूद नहीं था। जब यह घटना घटी, जब यह उपनिषद का वचन उतरा किसी पर और जब यह मोहम्मद पर कुरान उतरी और जब ये बाइबिल के वचन जीसस पर उतरे, तो वे मौजूद नहीं थे।
धर्म और विज्ञान के अनुभव भिन्न-भिन्न नहीं हैं; हो नहीं सकते; क्योंकि अगर विज्ञान में कोई सत्य उतरता है, तो उसके उतरने का भी मार्ग वही है जो धर्म में उतरता है, जो धर्म के उतरने का मार्ग है। सत्य के उतरने का एक ही मार्ग है, जब व्यक्ति नहीं होता तो परमात्मा से सत्य उतरता है; हमारे भीतर जगह खाली हो जाती है, उस खाली जगह में सत्य प्रवेश करता है।
दुनिया में कोई भी ढंग से--चाहे कोई संगीतज्ञ, चाहे कोई चित्रकार, चाहे कोई कवि, चाहे कोई वैज्ञानिक, चाहे कोई धार्मिक, चाहे कोई मिस्टिक--दुनिया में जिन्होंने भी सत्य की कोई किरण पाई है, उन्होंने तभी पाई है, जब वे स्वयं नहीं थे। यह धर्म को तो बहुत पहले से खयाल में आ गया। लेकिन धर्म का अनुभव दस हजार साल पुराना है। दस हजार साल में धार्मिक-फकीर को, धार्मिक-संत को, धार्मिक-योगी को यह अनुभव हुआ कि यह मैं नहीं हूं।
यह बड़ी मुश्किल बात है। जब पहली दफा आपके भीतर परमात्मा से कुछ आता है, तब डिस्टिंक्शन करना बहुत मुश्किल होता है कि यह आपका है कि परमात्मा का है। जब पहली दफा आता है तो डांवाडोल होता है मन कि मेरा ही होगा और अहंकार की इच्छा भी होती है कि मेरा ही हो। लेकिन धीरे-धीरे, धीरे-धीरे जब दोनों चीजें साफ होती हैं और पता चलता है कि आप और इस सत्य में कहीं कोई तालमेल नहीं बनता, तब फासला दिखाई पड़ता है, डिस्टेंस दिखाई पड़ता है।
विज्ञान की उम्र नई है अभी--दोत्तीन सौ साल। लेकिन दोत्तीन सौ साल में वैज्ञानिक विनम्र हुआ है। आज से पचास साल पहले वैज्ञानिक कहता था, जो खोजा, वह हमने खोजा। आज नहीं कहता। आज वह कहता है, हमारी सामर्थ्य के बाहर मालूम पड़ता है सब। आज का वैज्ञानिक उतनी ही मिस्टिसिज्म की भाषा में बोल रहा है, उतने ही रहस्य की भाषा में, जितना संत बोले थे।
इसलिए जल्दी न करें! और सौ साल, और वैज्ञानिक ठीक वही भाषा बोलेगा, जो उपनिषद बोलते हैं। बोलनी ही पड़ेगी वही भाषा, जो बुद्ध बोलते हैं। बोलनी ही पड़ेगी वही भाषा, जो अगस्तीन और फ्रांसिस बोलते हैं। बोलनी ही पड़ेगी। बोलनी पड़ेगी इसलिए कि जितना-जितना सत्य का गहरा अनुभव होगा, उतना-उतना व्यक्ति का अनुभव क्षीण होता है। और जितना सत्य प्रगट होता है, उतना ही अहंकार लीन होता है। और एक दिन पता चलता है कि जो भी जाना गया है, वह प्रसाद है; वह ग्रेस है; वह उतरा है; उसमें मैं नहीं हूं। और जो-जो मैंने नहीं जाना, उसकी जिम्मेवारी मेरी है, क्योंकि मैं इतना मजबूत था कि जान नहीं सकता था। मैं इतना गहन था कि सत्य नहीं उतर सकता था। सत्य उतरता है खाली चित्त में, शून्य चित्त में। और असत्य उतारना हो, तो मैं की मौजूदगी जरूरी है।
विज्ञान की खोज को बाधा नहीं पड़ेगी। जो खोज हुई है, वह भी अज्ञात के संबंध से ही हुई है; समर्पण से हुई है। और जो खोज होगी आगे, वह भी समर्पण से ही होगी। समर्पण के द्वार के अतिरिक्त सत्य कभी किसी और द्वार से न आया है, न आ सकता है।

विचारवान अर्जुन और युद्ध का धर्मसंकट (भाग-5 प्रथम प्रवचन)



प्रश्न: भगवान श्री, एक तो अज्ञात का विल होता है, एक व्यक्ति का अपना विल होता है। दोनों में कांफ्लिक्ट होते हैं। तो व्यक्ति कैसे जान पाए कि अज्ञात का क्या विल है, अज्ञात की क्या इच्छा है?


पूछते हैं, व्यक्ति कैसे जान पाए कि अज्ञात की क्या इच्छा है? व्यक्ति कभी नहीं जान पाता। हां, व्यक्ति अपने को छोड़ दे, मिटा दे, तो तत्काल जान लेता है; अज्ञात के साथ एक हो जाता है। बूंद नहीं जान सकती कि सागर क्या है, जब तक कि बूंद सागर के साथ खो न जाए। व्यक्ति नहीं जान सकता कि परमात्मा की इच्छा क्या है। जब तक व्यक्ति अपने को व्यक्ति बनाए है, तब तक नहीं जान सकता है। व्यक्ति अपने को खो दे, तो फिर परमात्मा की इच्छा ही शेष रह जाती है, क्योंकि व्यक्ति की कोई इच्छा शेष नहीं रह जाती। तब जानने का सवाल ही नहीं उठता। तब व्यक्ति वैसे ही जीता है, जैसे अज्ञात उसे जिलाता है। तब व्यक्ति की कोई आकांक्षा, तब व्यक्ति की कोई फलाकांक्षा, तब व्यक्ति की कोई अपनी अभीप्सा, तब व्यक्ति की समग्र की आकांक्षा के ऊपर अपनी थोपने की कोई वृत्ति शेष नहीं रह जाती, क्योंकि व्यक्ति शेष नहीं रह जाता।
जब तक व्यक्ति है, तब तक अज्ञात क्या चाहता है, नहीं जाना जा सकता। और जब व्यक्ति नहीं है, तब जानने की कोई जरूरत नहीं; जो भी होता है, वह अज्ञात ही करवाता है। तब व्यक्ति एक इंस्ट्रूमेंट हो जाता है, तब व्यक्ति एक साधनमात्र हो जाता है।
कृष्ण पूरी गीता में आगे अर्जुन को यही समझाते हैं कि वह अपने को छोड़ दे अज्ञात के हाथों में; समर्पित कर दे। क्योंकि वह जिन्हें सोच रहा है कि ये मर जाएंगे, वे अज्ञात के द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं। कि वह जिन्हें सोचता है कि इनकी मृत्यु के लिए मैं जिम्मेवार हो जाऊंगा, उनके लिए वह बिलकुल भी जिम्मेवार नहीं होगा। अगर वह अपने को बचाता है, तो जिम्मेवार हो जाएगा। अगर अपने को छोड़कर साधनवत, साक्षीवत लड़ सकता है, तो उसकी कोई जिम्मेवारी नहीं रह जाती है।
व्यक्ति अपने को खो दे समष्टि में, व्यक्ति अपने को समर्पित कर दे, छोड़ दे अहंकार को, तो ब्रह्म की इच्छा ही फलित होती है। अभी भी वही फलित हो रही है। ऐसा नहीं कि हम उससे भिन्न फलित करा लेंगे। लेकिन हम भिन्न फलित कराने में लड़ेंगे, टूटेंगे, नष्ट होंगे।
एक छोटी-सी कहानी मैं निरंतर कहता रहा हूं। मैं कहता रहा हूं कि एक नदी में बहुत बाढ़ आई है और दो छोटे-से तिनके उस नदी में बह रहे हैं। एक तिनका नदी में आड़ा पड़ गया है और नदी की बाढ़ को रोकने की कोशिश कर रहा है। और वह चिल्ला रहा है बहुत जोर से कि नहीं बढ़ने देंगे नदी को, यद्यपि नदी बढ़ी जा रही है। वह चिल्ला रहा है कि रोककर रहेंगे, यद्यपि रोक नहीं पा रहा है। वह चिल्ला रहा है कि नदी को हर हालत में रोककर ही रहूंगा, जीऊं या मरूं! लेकिन बहा जा रहा है। नदी को न उसकी आवाज सुनाई पड़ती है, न उसके संघर्ष का पता चलता है। एक छोटा-सा तिनका! नदी को उसका कोई भी पता नहीं है। नदी को कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन तिनके को बहुत फर्क पड़ रहा है। उसकी जिंदगी बड़ी मुसीबत में पड़ गई है, बहा जा रहा है। नहीं लड़ेगा तो जहां पहुंचेगा, वहीं पहुंचेगा लड़कर भी। लेकिन यह बीच का क्षण, यह बीच का काल, दुख, पीड़ा, द्वंद्व और चिंता का काल हो जाएगा।
उसके पड़ोस में एक दूसरे तिनके ने छोड़ दिया है अपने को। वह नदी में आड़ा नहीं पड़ा है, सीधा पड़ा है, नदी जिस तरफ बह रही है उसी तरफ, और सोच रहा है कि मैं नदी को बहने में सहायता दे रहा हूं। उसका भी नदी को कोई पता नहीं है। वह सोच रहा है, मैं नदी को सागर तक पहुंचा ही दूंगा; मेरे साथ है तो पहुंच ही जाएगी। नदी को उसकी सहायता का भी कोई पता नहीं है।
लेकिन नदी को कोई फर्क नहीं पड़ता, उन दोनों तिनकों को बहुत फर्क पड़ रहा है। जो नदी को साथ बहा रहा है, वह बड़े आनंद में है, वह बड़ी मौज में नाच रहा है; और जो नदी से लड़ रहा है, वह बड़ी पीड़ा में है। उसका नाच, नाच नहीं है, एक दुखस्वप्न है। उसका नाच उसके अंगों की टूटन है; वह तकलीफ में पड़ा है, हार रहा है। और जो नदी को बहा रहा है, वह जीत रहा है।
व्यक्ति ब्रह्म की इच्छा के अतिरिक्त कुछ कभी कर नहीं पाता है, लेकिन लड़ सकता है, इतनी स्वतंत्रता है। और लड़कर अपने को चिंतित कर सकता है, इतनी स्वतंत्रता है।
सार्त्र का एक वचन है, जो बड़ा कीमती है। वचन है, ह्युमैनिटी इज़ कंडेम्ड टु बी फ्री--आदमी स्वतंत्र होने के लिए मजबूर है; विवश है, कंडेम्ड है, निंदित है--स्वतंत्र होने के लिए।
लेकिन आदमी अपनी स्वतंत्रता के दो उपयोग कर सकता है। अपनी स्वतंत्रता को वह ब्रह्म की इच्छा से संघर्ष बना सकता है। और तब उसका जीवन दुख, पीड़ा, एंग्विश, संताप का जीवन होगा। और अंततः पराजय फल होगी। और कोई व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता को ब्रह्म के प्रति समर्पण बना सकता है, तब जीवन आनंद का, ब्लिस का, नृत्य का, गीत का जीवन होगा। और अंत? अंत में विजय के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। वह जो तिनका सोच रहा है कि नदी को साथ दे रहा हूं, वह विजयी ही होने वाला है। उसकी हार का कोई उपाय नहीं है। और जो नदी को रोक रहा है, वह हारने ही वाला है, उसकी जीत का कोई उपाय नहीं है।
ब्रह्म की इच्छा को नहीं जाना जा सकता है, लेकिन ब्रह्म के साथ एक हुआ जा सकता है। और तब, अपनी इच्छा खो जाती है, उसकी इच्छा ही शेष रह जाती है।

विचारवान अर्जुन और युद्ध का धर्मसंकट (भाग-4 प्रथम प्रवचन)


प्रश्न: भगवान श्रीश्रीमद्भगवद्गीता में सारा भार अर्जुन पर है और यहां गीता में दुर्योधन कहता हैपांडवों की सेना भीम-अभिरक्षित और कौरवों की भीष्म...। तो भीष्म के सामने भीम को रखने का खयाल क्या यह नहीं हो सकता कि दुर्योधन अपने प्रतिस्पर्धी के रूप में भीम को ही देखता है?


यह बिंदु विचारणीय है। सारा युद्ध अर्जुन की धुरी पर हैलेकिन यह पीछे से सोची गई बात है--युद्ध के बादयुद्ध की निष्पत्ति पर। जो युद्ध के पूरे फल को जानते हैंवे कहेंगे कि सारा युद्ध अर्जुन की धुरी पर घूमा है। लेकिन जो युद्ध के प्रारंभ में खड़े थेवे ऐसा नहीं सोच सकते थे। दुर्योधन के लिए युद्ध की सारी संभावना भीम से ही पैदा होती थी। उसके कारण थे। अर्जुन जैसे भले व्यक्ति पर युद्ध का भरोसा दुर्योधन भी नहीं कर सकता था। अर्जुन डांवाडोल हो सकता हैइसकी संभावना दुर्योधन के मन में भी है। अर्जुन युद्ध से भाग सकता हैइसकी कोई गहरी अचेतन प्रतीति दुर्योधन के मन में भी है। अगर युद्ध टिकेगातो भीम पर टिकेगा। युद्ध के लिए भीम जैसे कम बुद्धि केलेकिन ज्यादा शक्तिशाली लोगों पर भरोसा किया जा सकता है।
अर्जुन बुद्धिमान है। और जहां बुद्धि हैवहां संशय है। और जहां संशय हैवहां द्वंद्व है। अर्जुन विचारशील है। और जहां विचारशीलता हैवहां पूरे पर्सपेक्टिवपूरे परिप्रेक्ष्य को सोचने की क्षमता हैवहां युद्ध जैसी भयंकर स्थिति में आंख बंद करके उतरना कठिन है। दुर्योधन भरोसा कर सकता है--युद्ध के लिए--भीम का।
भीम और दुर्योधन के बीच गहरा सामंजस्य है। भीम और दुर्योधन एक ही प्रकृति केबहुत गहरे में एक ही सोच केएक ही ढंग के व्यक्ति हैं। इसलिए अगर दुर्योधन ने ऐसा देखा कि भीम केंद्र है दूसरी तरफतो गलत नहीं देखाठीक ही देखा। और गीता भी पीछे सिद्ध करती है कि अर्जुन भागा-भागा हो गया है। अर्जुन पलायनवादी दिखाई पड़ा हैवह एस्केपिस्ट मालूम पड़ा है। अर्जुन जैसे व्यक्ति की संभावना यही है। अर्जुन के लिए यह युद्ध भारी पड़ा है। युद्ध में जानाअर्जुन के लिए अपने को रूपांतरित करके ही संभव हो सका है। अर्जुन एक नए तल पर पहुंचकर ही युद्ध के लिए राजी हो सका है।
भीम जैसा थाउसी तल पर युद्ध के लिए तैयार था। भीम के लिए युद्ध सहजता हैजैसे दुर्योधन के लिए सहजता है। इसलिए दुर्योधन भीम को केंद्र में देखता हैतो आकस्मिक नहीं है। लेकिन यह युद्ध के प्रारंभ की बात है। युद्ध की निष्पत्ति क्या होगीअंत क्या होगायह दुर्योधन को पता नहीं है। हमें पता है।
और ध्यान रहेअक्सर ही जीवन जैसा प्रारंभ होता हैवैसा अंत नहीं होता। अक्सर अंत सदा ही अनिर्णीत हैअंत सदा ही अदृश्य है। अक्सर ही जो हम सोचकर चलते हैंवह नहीं होता। अक्सर ही जो हम मानकर चलते हैंवह नहीं होता। जीवन एक अज्ञात यात्रा है। इसलिए जीवन के प्रारंभिक क्षणों में--किसी भी घटना के प्रारंभिक क्षणों में--जो सोचा जाता हैवह अंतिम निष्पत्ति नहीं बनती। और हम भाग्य के निर्माण की चेष्टा में रत हो सकते हैंलेकिन भाग्य के निर्णायक नहीं हो पाते हैंनिष्पत्ति कुछ और होती है।
खयाल तो दुर्योधन का यही था कि भीम केंद्र पर रहेगा। और अगर भीम केंद्र पर रहतातो शायद दुर्योधन जो कहता है कि हम विजयी हो सकेंगेहो सकता था। लेकिन दुर्योधन की दृष्टि सही सिद्ध नहीं हुई। और आकस्मिक तत्व बीच में उतर आया। वह भी सोच लेने जैसा है।
कृष्ण का खयाल ही न था। कि अर्जुन अगर भागने लगेतो कृष्ण उसे युद्ध में रत करवा सकते हैं। हम सबको भी खयाल नहीं होता। जब हम जिंदगी में चलते हैंतो एक अज्ञात परमात्मा की तरफ से भी बीच में कुछ होगाइसका हमें कभी खयाल नहीं होता। हम जो भी हिसाब लगाते हैंवह दृश्य का होता है। अदृश्य भी बीच में इंटरपेनिट्रेट कर जाएगाअदृश्य भी बीच में उतर आएगाइसका हमें भी कोई खयाल नहीं होता।
कृष्ण के रूप में अदृश्य बीच में उतर आया है और सारी कथा बदल गई है। जो होतावह नहीं हुआऔर जो नहीं होने की संभावना मालूम होती थीवह हुआ है। और अज्ञात जब उतरता है तो उसके प्रिडिक्शन नहीं हो सकतेउसकी कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती। इसलिए जब कृष्ण भागते हुए अर्जुन को युद्ध में धक्का देने लगेतो जो भी इस कथा को पहली बार पढ़ता हैवह शॉक खाए बिना नहीं रह सकताउसको धक्का लगता है।
जब इमर्सन ने पहली बार पढ़ातो उसने किताब बंद कर दीवह घबड़ा गया। क्योंकि अर्जुन जो कह रहा थावह सभी तथाकथित धार्मिक लोगों को ठीक मालूम पड़ेगा। वह ठीक तथाकथित धार्मिक आदमी का तर्क दे रहा था। जब हेनरी थारो ने इस जगह आकर देखा कि कृष्ण उसे युद्ध में जाने की सलाह देते हैंतो वह भी घबड़ा गया। हेनरी थारो ने भी लिखा है कि मुझे ऐसा भरोसा नहीं थाखयाल भी नहीं था कि कहानी ऐसा मोड़ लेगी कि कृष्ण और युद्ध में जाने की सलाह देंगे! गांधी को भी वहीं तकलीफ थीउनकी पीड़ा भी वहीं थी।
लेकिन जिंदगी किन्हीं सिद्धांतों के हिसाब से नहीं चलती। जिंदगी बहुत अनूठी है। जिंदगी रेल की पटरियों पर दौड़ती नहींगंगा की धारा की तरह बहती हैउसके रास्ते पहले से तय नहीं हैं। और जब परमात्मा बीच में आता हैतो सब डिस्टर्ब कर देता हैजो भी तैयार थाजो भी आदमी ने निर्मित किया थाजो आदमी की बुद्धि सोचती थीसब उलट-फेर हो जाता है।
इसलिए बीच में परमात्मा भी उतर आएगा इस युद्ध मेंइसकी दुर्योधन को कभी कल्पना न थी। इसलिए वह जो कह रहा हैप्रारंभिक वक्तव्य है। जैसा कि हम सब आदमी जिंदगी के प्रारंभ में जो वक्तव्य देते हैंऐसे ही होते हैं। बीच में अज्ञात उतरता चलता है और सब कहानी बदलती चलती है। अगर हम जिंदगी को पीछे से लौटकर देखेंतो हम कहेंगेजो भी हमने सोचा थावह सब गलत हुआ: जहां सफलता सोची थीवहां असफलता मिलीजो पाना चाहता थावह नहीं पाया जा सकाजिसके मिलने से सुख सोचा थावह मिल गया और दुख पायाऔर जिसके मिलने की कभी कामना भी न की थीउसकी झलक मिली और आनंद के झरने फूटे। सब उलटा हो जाता है।
लेकिन इतने बुद्धिमान आदमी इस जगत में कम हैंजो निष्पत्ति को पहले ध्यान में लें। हम सब प्रारंभ को ही पहले ध्यान में लेते हैं। काश! हम अंत को पहले ध्यान में लें तो जिंदगी की कथा बिलकुल और हो सकती है। लेकिन अगर दुर्योधन अंत को पहले ध्यान में ले लेतो युद्ध नहीं हो सकता। दुर्योधन अंत को ध्यान में नहीं ले सकताअंत को मानकर चलेगा कि ऐसा होगा। इसलिए वह कह रहा है बार-बार कि यद्यपि सेनाएं उस तरफ महान हैंलेकिन जीत हमारी ही होगी। मेरे योद्धा जीवन देकर भी मुझे जिताने के लिए आतुर हैं।
लेकिन हम अपनी सारी शक्ति भी लगा देंतो भी असत्य जीत नहीं सकता। हम सारा जीवन भी लगा देंतो भी असत्य जीत नहीं सकताइस निष्पत्ति का दुर्योधन को कोई भी बोध नहीं हो सकता है। और सत्यजो कि हारता हुआ भी मालूम पड़ता होअंत में जीत जाता है। असत्य प्रारंभ में जीतता हुआ मालूम पड़ता हैअंत में हार जाता है। सत्य प्रारंभ में हारता हुआ मालूम पड़ता हैअंत में जीत जाता है। लेकिन प्रारंभ से अंत को देख पाना कहां संभव है! जो देख पाता हैवह धार्मिक हो जाता है। जो नहीं देख पाता हैवह दुर्योधन की तरह अंधे युद्ध में उतरता चला जाता है।

विचारवान अर्जुन और युद्ध का धर्मसंकट (भाग-3 प्रथम प्रवचन)


 संजय उवाच:=
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्।। २।।
इस पर संजय बोला: उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचनायुक्त पांडवों की सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर, यह वचन कहा।
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।। ३।।
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः।। ४।।
हे आचार्य, आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की हुई पांडुपुत्रों की इस भारी सेना को देखिए। इस सेना में बड़े-बड़े धनुषों वाले, युद्ध में भीम और अर्जुन के समान बहुत से शूरवीर हैं। जैसे सात्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद।
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुंगवः।। ५।।
और धृष्टकेतु, चेकितान तथा बलवान काशिराज, पुरुजित कुंतिभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य।
युधामन्युश्च विक्रांत उत्तमौजाश्च वीर्यवान्।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः।। ६।।
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।
नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते।। ७।।
और पराक्रमी युधामन्यु तथा बलवान उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पांचों पुत्र, यह सब ही महारथी हैं।
हे ब्राह्मण श्रेष्ठ, हमारे पक्ष में भी जो-जो प्रधान हैं, उनको आप समझ लीजिए। आपके जानने के लिए मेरी सेना के जो-जो सेनापति हैं, उनको कहता हूं।
मनुष्य का मन जब हीनता की ग्रंथि से, इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स से पीड़ित होता है, जब मनुष्य का मन अपने को भीतर हीन समझता है, तब सदा ही अपनी श्रेष्ठता की चर्चा से शुरू करता है। लेकिन जब हीन व्यक्ति नहीं होते, तब सदा ही दूसरे की श्रेष्ठता से चर्चा शुरू होती है। यह दुर्योधन कह रहा है द्रोणाचार्य से, पांडवों की सेना में कौन-कौन महारथी, कौन-कौन महायोद्धा इकट्ठे हैं। इससे वह शुरू कर रहा है। यह बड़ी प्रतीक की, बड़ी सिम्बालिक बात है। साधारणतः शत्रु की प्रशंसा से बात शुरू नहीं होती। साधारणतः शत्रु की निंदा से बात शुरू होती है। साधारणतः शत्रु के साथ अपनी प्रशंसा से बात शुरू होती है। शत्रु की सेना में कौन-कौन महावीर इकट्ठे हैं, दुर्योधन उनसे बात शुरू कर रहा है।
दुर्योधन कैसा भी व्यक्ति हो, इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स से पीड़ित व्यक्ति नहीं है, हीनता की ग्रंथि से पीड़ित व्यक्ति नहीं है। और यह बड़े मजे की बात है कि अच्छा आदमी भी अगर हीनता की ग्रंथि से पीड़ित हो तो उस बुरे आदमी से बदतर होता है, जो हीनता की ग्रंथि से पीड़ित नहीं है। दूसरे की प्रशंसा से केवल वही शुरू कर सकता है, जो अपने प्रति बिलकुल आश्वस्त है।
यह एक बुनियादी अंतर सदियों में पड़ा है। बुरे आदमी पहले भी थे, अच्छे आदमी पहले भी थे। ऐसा नहीं है कि आज बुरे आदमी बढ़ गए हैं और अच्छे आदमी कम हो गए हैं। आज भी बुरे आदमी उतने ही हैं, अच्छे आदमी उतने ही हैं। अंतर क्या पड़ा है?
निरंतर धर्म का विचार करने वाले लोग ऐसा प्रचार करते रहते हैं कि पहले लोग अच्छे थे और अब लोग बुरे हो गए हैं। ऐसी उनकी धारणा, मेरे खयाल में बुनियादी रूप से गलत है। बुरे आदमी सदा थे, अच्छे आदमी सदा थे। अंतर इतना ऊपरी नहीं है, अंतर बहुत भीतरी पड़ा है। बुरा आदमी भी पहले हीनता की ग्रंथि से पीड़ित नहीं था। आज अच्छा आदमी भी हीनता की ग्रंथि से पीड़ित है। यह गहरे में अंतर पड़ा है।
आज अच्छे से अच्छा आदमी भी बाहर से ही अच्छा-अच्छा है, भीतर स्वयं भी आश्वस्त नहीं है। और ध्यान रहे, जिस आदमी का आश्वासन स्वयं पर नहीं है, उसकी अच्छाई टिकने वाली अच्छाई नहीं हो सकती। बस, स्किनडीप होगी, चमड़ी के बराबर गहरी होगी। जरा-सा खरोंच दो और उसकी बुराई बाहर आ जाएगी। और जो बुरा आदमी अपनी बुराई के होते हुए भी आश्वस्त है, उसकी बुराई भी किसी दिन बदली जा सकती है, क्योंकि बहुत गहरी अच्छाई बुनियाद में खड़ी है--वह स्वयं का आश्वासन।
इस बात को मैं महत्वपूर्ण मानता हूं कि दुर्योधन जैसा बुरा आदमी एक बहुत ही शुभ ढंग से चर्चा को शुरू कर रहा है। वह विरोधी के गुणों का पहले उल्लेख कर रहा है, फिर पीछे अपनी सेना के महारथियों का उल्लेख कर रहा है।

भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिंजयः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्थैव च।। ८।।
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः।
नानाशस्त्र प्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः।। ९।।
एक तो स्वयं आप और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा, और भी बहुत से शूरवीर अनेक प्रकार के शस्त्र-अस्त्रों से युक्त मेरे लिए जीवन की आशा को त्यागने वाले सबके सब युद्ध में चतुर हैं।
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्।। १०।।
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि।। ११।।
और भीष्म पितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना सब प्रकार से अजेय है और भीम द्वारा रक्षित इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है। इसलिए सब मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए आप लोग सब के सब ही निःसंदेह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें।